हर किसी को हर वक्त मूर्ख बनाना संभव नहीं


पी. चिदंबरम


मुझे नेशनल सैंपल सर्वे से निम्नलिखित आंकड़े (देखें सारणी) मिले हैं (हालांकि ये पुराने हैं)। पिछले कुछ दशकों से विभिन्न राज्यों के कृषि उपज बाजार समितियां (एपीएमसी) अधिनियम प्रभावी होने के बावजूद ज्यादातर किसानों ने अपनी उपज स्थानीय निजी व्यापारियों को बेची। धान और गेहूं के मामले में तो करीब साठ फीसद किसान इस श्रेणी में आते हैं। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 2019-20 में सिर्फ एक करोड़ चौबीस लाख धान किसानों और 2020-21 में तिरालीस लाख पैंतीस हजार गेहूं किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का फायदा मिला।


कारण स्वाभाविक हैं। पचासी फीसद किसान छोटी जोत वाले हैं, एक एकड़ से भी कम और बेचने के लिए उनके पास बहुत ही कम उपज बचती है। दूर बने एपीएमसी बाजार आर्थिक रूप से इनके लिए व्यावहारिक विकल्प नहीं हैं, क्योंकि फसल को बोरों में भरना, उन्हें गाड़ी में लदवा कर मंडियों तक पहुंचाना और फिर उतरवाना, एपीएमसी में इंतजार, शुल्क देना और दो दिन बाद या इससे भी ज्यादा वक्त में फसल का दाम लेने आना छोटे किसानों के वश के बाहर है। स्थानीय व्यापारी एक निर्भर भागीदार है, जो खेत पर ही फसल खरीद लेता है और एक बार में पैसे दे देता है, भले वह मूल्य एमएसपी से कम क्यों न हो।


हालांकि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जहां बाजारयोग्य उपज काफी ज्यादा होती है, वहां एपीएमसी मंडी काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इन दोनों राज्यों की धान और गेहूं की कुल पैदावार का पचहत्तर फीसद सरकारी एजेंसियां खरीद लेती हैं। दूसरे राज्यों में कुछ विद्वानों ने यह दलील रखी कि किसानों के लिए मंडियां अपर्याप्त तो हैं ही, साथ ही दूर भी काफी हैं। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में छत्तीस जिलों में दो सौ तिरासी मंडियां हैं, यानी औसतन प्रति जिला आठ और 2019-20 में इनका कुल कारोबार मात्र एक सौ उनतीस करोड़ छिहत्तर लाख रुपए का रहा। महाराष्ट्र में तीन सौ छब्बीस मंडियां हैं और इन तक पहुंचने के लिए किसानों को औसतन पच्चीस किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।


इसमें कोई संदेह नहीं कि एपीएमसी अधिनियम कृषि उपज के मुक्त व्यापार को प्रतिबंधित करता है, लेकिन मंडियां सुरक्षा जाल की तरह काम करती हैं। पंजाब और हरियाणा में मंडियों में वसूला जाने वाला शुल्क राज्य के राजस्व संग्रह में बड़ी भूमिका अदा करता है, जिसका उपयोग कृषि विकास और ग्रामीण इलाकों में ढांचागत विकास के लिए किया जाता है। फिर भी, मेरा यह मानना है कि वक्त के साथ एपीएमसी अधिनियम को मुक्त व्यापार के पक्ष में झुक जाना चाहिए, जो कई आसान पहुंच वाले बाजार से संभव किया जाए।


यह वही है जिसका कांग्रेस ने 2019 में वादा किया था। इसने किसान उत्पादक कंपनियों/ संगठनों के बढ़ावा देने का वादा किया था, ताकि तकनीक और बाजार तक किसानों की पहुंच बन सके, और पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं के साथ किसानों के बाजार खड़े किए जा सकें, जहां गांवों और कस्बों तक किसान अपनी फसलों को लेकर पहुंच सकें और खुले बाजार में बेच सकें। कांग्रेस के इस वादे की मूल आत्मा देश में ऐसे हजारों बाजार बनाने की थी। राज्य सरकारें, स्थानीय पंचायतें, सहकारी समितियां या लाइसेंसधारी निजी संचालक भी ऐसे बाजार बना सकते हैं। इनका हल्का नियमन होगा, इसे आसानी से संचालित किया जा सकेगा और यह तय होगा कि बाजार में हर सौदा एमएसपी से कम पर न हो। कई सारे आसानी से पहुंच योग्य बाजारों की स्थापना के बाद एपीएमसी अधिनयमों को रद्द करने का प्रस्ताव स्वाभाविक होगा।


इसके उलट मोदी सरकार ने जो किया वह यह कि इसने एमएसपी के सुरक्षा जाल को कमजोर कर डाला और सरकारी खरीद को भी कम कर दिया। किसान सड़कों पर विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि कहीं एमएसपी को पूरी तरह से खत्म ही न कर दिया जाए। राज्य सरकारें इसलिए चिंतित हैं क्योंकि सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए बड़ा खतरा खड़ा हो जाएगा। अगर एक बार खाद्य सुरक्षा के तीन स्तंभों की अनदेखी कर दी गई तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 के अंतर्गत बनाई गई खाद्य सुरक्षा व्यवस्था ढह जाएगी।


मोदी सरकार के कानून हजारों वैकल्पिक बाजार बनाने वाले नहीं हैं। बजाय इसके वे ठेके पर खेती की इजाजत देंगे और कारपोरेट घरानों के प्रवेश के लिए दरवाजा खोल देंगे और आखिरकार गिरोहबाजी के लिए भी रास्ता खुल जाएगा। छोटे और मझोले किसान ऐसे ताकतवर खरीदारों से बराबरी के स्तर पर कोई सौदेबाजी नहीं कर पाएंगे और किसी विवाद की स्थिति में नए कानूनों के तहत के समाधान की पेचीदा प्रक्रिया किसानों को बर्बाद करके रख देगी।


कृषिमंत्री ने संसद को बताया कि नए नियमों का एमएसपी से कोई लेना-देना नहीं है। यह बिल्कुल सही है। फिर भी उन्होंने कहा कि सरकार किसानों को एमएसपी की गारंटी देगी। यह अजीबोगरीब वादा है। सरकार को यह कैसे पता चलेगा कि किस किसान ने किस खरीदार को कौनसी उपज बेची है? यदि मंशा हर निजी सौदे में एमएसपी को अनिवार्य बनाने की थी, तो विधेयकों में ऐसा निश्चित अनुच्छेद क्यों नहीं जोड़ा गया कि खरीदार किसान को जो भी मूल्य भुगतान करेगा, वह अधिसूचित एमएसपी से कम नहीं होगा?


जैसे कि नोटबंदी एक त्रासदी थी और 2017-18 से आर्थिक कुप्रबंधन के कारण तबाही का सिलसिला जारी है, वैसे ही दो कृषि विधेयक भारतीय कृषि समुदाय को और कृषि अर्थव्यवस्था को कमजोर करके रख देंगे। ये राज्यों के अधिकार और संघवाद को भी आघात पहुंचाने वाले हैं। स्पष्ट है कि मोदी सरकार यह मानती है कि वह सारे लोगों को हमेशा मूर्ख बना सकती है।