संजय दुबे
टीवी की बहसें बता रही हैं कि बॉलीवुड नशा करता है। यह सबको पता है। इससे समाज को ज्यादा दिक्कत भी नहीं है। उसे समस्या अपने इर्द-गिर्द बिक रही अवैध दारू, गांजा, हशीश, हेरोइन आदि से है, जिसके चलते उनका बेटा, पिता, शौहर कमाई का अच्छा-खासा हिस्सा उस पर फूंक कर घर आ रहा है। इससे उनका चूल्हा नहीं जल रहा।
समाज को नशा करने वालों से दिक्कत उतनी नहीं है, जितनी उसे बेचने वालों से है। गांव-गांव, चट्टी-चैराहों पर शराब के खुलते नए ठेके उसे परेशान कर रहे हैं। हेरोइन, हशीश, अफीम वगैरह की सरेआम बिक्री होती है। इसका पता सबको होता है। यहां तक कि प्रशासन को भी। फिर भी इन पर कोई बड़ी कारवाई होती नहीं दिखती। कभी-कभार सालों बाद औपचारिकता के लिए इसका कोई कारोबारी जेल जाता देखा जाता है। मगर कुछ दिनों बाद वापस आकर वह फिर से यही काम दोगुनी रफ्तार से करता है।
अब सवाल है कि आखिर इस धंधे को संचालित कौन कर रहा है? कहां से यह माल आ रहा है? कौन इसे बेच रहा है? हर बात पर हो-हल्ला मचाने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस पर उतना मुखर नहीं दिखता, जितना होना चाहिए। सरकारी सर्वे के मुताबिक इस देश में सोलह करोड़ लोग शराब पीते हैं। साठ लाख लोग हेरोइन और अफीम का सेवन करते हैं। 3.1 करोड़ लोगों ने भांग, गांजा, चरस का सेवन साल में एक बार जरूर किया है।
सवाल है कि हर शख्स जानता है कि नशा बुरा है, फिर भी करता क्यों है? इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है। इंसान को खुश रखने में मददगार डोपामाइन नाम का हार्मोन हर नशे के बाद मस्तिष्क में ज्यादा रिसने लगता है, जिससे किसी भी नशे के आदी आदमी को इसके इस्तेमाल की लत लग जाती है। नशे का सेवन करने वाले हर आदमी का व्यवहार भी अलग होता है। शराब पीने वाले आक्रामक होते हैं। भांग खाने वाले हंसोड़ और खुशगवार होते हैं। गांजा पीने के बाद मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इसका नशा करने के बाद इंसान सुस्त हो जाता है। भूख कम लगती है, हमेशा कब्ज रहती है। भांग कोे पुरातन काल से एक सामाजिक मान्यता प्राप्त है और होली, शिवरात्रि जैसे पर्वों पर इसके सेवन की सामूहिक परंपरा रही है।
माना जाता है कि हर अच्छी-बुरी आदत की शुरुआत किशोरवय में ही होती है। कभी-कभी यह युवावस्था में भी होती है। मुंबई की मायानगरी इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। यहां पैसे की कोई कमी नहीं है। अगर किसी अभिनेत्री ने कहा कि यहां नशे का सेवन न करने का मतलब पिछड़ा और गंवार होना है, तो यह कोई नई बात नहीं है। आज भी समाज के संपन्न तबके में नशे का मतलब आनंद ही होता है। नशे का एक और मतलब होता है, आत्मकेंद्रित होना। इसलिए हर्ष और विषाद, दोनों स्थितियों में इसका सेवन इंसान को राहत देता है। बस, इसी के चलते आदमी इसका गुलाम हो जाता है। उसे इसकी गिरफ्त से निकलना मुश्किल लगता है।
मादक पदार्थों के कारोबार को समझने की जरूरत है। भारत की भौगोलिक स्थिति इसके लिए काफी अनुकूल है, जिससे यहां पर नशे का कारोबार आसानी से चल रहा है। हमारे पड़ोस में पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमा हैं, जहां से इनकी खेप बड़ी आसानी से यहां पहुंचती है। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में नशे का सालाना कारोबार दस लाख करोड़ रुपए से ऊपर का है। नारकोटिक्स अधिकारियों का मानना है कि काफी मामले पकड़ में ही नहीं आते।
ऐसा भी नहीं कि इसको रोकने के सरकारी प्रयास नहीं होते, पर कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का मानना है कि इस तरह के कारोबारियों की ऊंची राजनीतिक पहुंच के चलते उन पर कड़ी कारवाई नहीं हो पाती। इसके लिए राजनीतिक रूप से दृढ़संकल्प सरकार की जरूरत है। पंजाब में अमरिंदर सरकार इसका उदाहरण है। वह अब तक पचास हजार से ज्यादा लोगों को पकड़ कर जेल भेज चुकी है। पिछले तीन सालों के भीतर तकरीबन सोलह सौ किलो हेरोइन, सत्रह सौ किलो अफीम पकड़ी गई है।
फिर समस्या नशे के कारोबार को रोकने से ही नहीं हल हो जाएगी। इसके लिए हमें सामाजिक, स्वास्थ्य विभाग को भी दुरूस्त करना होगा। नशेड़ियों को परामर्श भी देने की जरूरत है। हालात यह है कि हेरोइनबाज को आप कस कर मार नहीं सकते, क्योंकि उसके मर जाने का डर रहता है। अगर उसको नियमित हेरोइन नहीं मिलती, तो वह छटपटाने लगता है।
ऐसे में उसके नशे को धीरे-धीरे कम करके छुड़ाया जाता है। भारत में अब भी विदेशों की तरह रिहैब सेंटर नहीं हैं। यहां इसको छुड़ाने के लिए ज्यादातर दवाओं का ही उपयोग किया जाता है। नशा उन्मूलन केंद्र नाम की संस्था भी ग्रामीण इलाकों में उस तरह काम करती नहीं दिखती, जिस तरह दिल्ली, मुंबई, लुधियाना में दिखती है।
अक्सर देखा गया है कि नशेड़ियों को पूरी तरह से नशामुक्त बनाना काफी मुश्किल है। ये एक नशे को छोड़ कर दूसरा नशा अपना लेते हैं। इसी को रोकने में रिहैब सेंटर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जहां नशेड़ियों को पूरी तरह से उनकी निर्भरता समाप्त कराई जाती है।
समाज में नशे के बढ़ते चलन पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इंटरनेट की पहुंच, किशोरों की बढ़ती पारिवारिक दूरी, बाहर रहने के कारण नशे की गिरफ्त में आसानी से आ जा रहे हैं। एक खास बात और है कि हर किशोर एक अजीब-से मनोवैज्ञानिक दवाब में है। उसके अभिभावक और मित्रों का एक परोक्ष दबाव बन रहा है कि उसे इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन परीक्षा हर हाल में उत्तीर्ण करनी है। ऐसे माहौल में उसे नशा एक बड़ा सहारा दिखता है।
कर्नाटक में स्कूल के बच्चों के लिए तेरह सौ किलो से ज्यादा की भांग की एक खेप पकड़ी गई। इससे अंदाजा लगता है कि हम जिन्हें बच्चा समझ रहे हैं, वे नासमझी में ही बड़ों का काम कर रहे हैं।
ऐसा नहीं कि सिर्फ पुरुषों में नशे की लत बढ़ रही है। महिलाएं भी इसमें तेजी से शामिल हो रही हैं। सिगरेट, शराब के प्रति इनमें पहले वाली झिझक नहीं दिखती। बॉलीवुड भी इसी समाज का एक हिस्सा है। यह समाज को प्रभावित भी करता है। ये लोग टीवी और फिल्मों के जरिए घर-घर तक जाने-पहचाने जाते हैं। इनसे समाज का एक बड़ा वर्ग इस हद तक प्रभावित होता है कि उनके खाने-पीने, पहनावे, बोलने-चलने के तरीके तक में इनकी छाप दिखती है।
सवाल नशे के मसले को उछालने से ज्यादा इसके कारोबार पर लगाम लगाने का है। जिस तरह एनसीबी ने बॉलीवुड से इसकी शुरुआत की है, क्या इसका प्रभाव राज्यों पर भी पड़ेगा, यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा।
अब भी नशे पर कारवाई का अधिकार राज्य सरकारों के पास ज्यादा है। केंद्र सरकार के या किसी केंद्रीय जांच एंजेसी के चाहने से यह समस्या नहीं खत्म होने वाली। इसके लिए समग्र नीति और नीयत की जरूरत है। जरूरत इसे राष्ट्रीय विमर्श के साथ सामूहिक राजनीतिक प्रयास से नशे की गिरफ्त में जाते किशोरों, युवाओं को बचाने के लिए एक राष्ट्रीय नीति की है, जिसे हर राज्य में बिना भेदभाव के लागू होना चाहिए।